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ऋतुनुसार कालानुक्रमिकी विज्ञान-काल-गणना

🚩जय सियाराम🚩
विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र
(ऋषि-मुनियों का अनुसंधान)

■ क्रति = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुति = 1 लव
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट )
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार)
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग
■ 3 युग = 1 त्रैता युग
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 76 महायुग = मनवन्तर
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प (देवों का अन्त और जन्म )
■ महाकाल = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना।
ये हमारा भारत जिस पर हमको गर्व है

दो लिंग : नर और नारी

दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष

दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)

दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर

तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी

तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल

तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण

तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु

तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत

तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा

तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव

तीन अवस्था : जागृत, मूर्छित (बेहोशी), मृत

तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान

तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना

तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं

तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका

चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार

चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र

चार निति : साम, दाम, दंड, भेद

चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद


चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री

चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग

चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात

चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा

चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु

चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर

चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज

चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्

चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास

चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य

चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष

चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु

पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा

पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि

पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा

पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य

पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर

पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस

पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा

पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान

पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन

पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)

पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक

पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर

छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष

छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान

छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती

सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि

सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद

सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार

सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि

सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब

सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप

सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक

सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज

सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य

सात रंग : बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल

सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल

सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची

सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा

आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी

आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास

आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व

आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री

नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु

नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया

नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला

दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे

दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत

दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि

दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती

उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर... हैं ।

【 ऋतुनुसार कालानुक्रमिकी विज्ञान-काल-गणना 】
कालानुक्रमिकी या काल-गणना या कालक्रम विज्ञान (Chronology) वह विज्ञान है जिसके द्वारा हम ऐतिहासिक घटनाओं का कालनिर्माण कर सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि सब घटनाओं को किसी एक ही संवत्सर में प्रदर्शित किया जाए। केवल ऐसा करने पर ही सब घटनाओं का क्रम और उनके बीच का व्यतीत काल हम ज्ञात कर सकते हैं। यह संवत्सर कोई भी हो सकता है—प्राचीन या अर्वाचीन। इस काम के लिए आजकल अधिकतर ईसवी सन्‌ का उपयोग किया जाता है। हमारे यहाँ इस काम के लिए गतकलि वर्ष प्रयुक्त होता था और यूरोप में, प्राचीन काल में और कभी-कभी आजकल भी, जूलियन पीरिअड व्यवहृत होता है।

जगत्‌ के विविध देशों और विविध कालों में अलग-अलग संवत्‌ (era) प्रचलित थे। इतना ही नहीं, भारत जैसे विशाल देश में आजकल और भूतकाल में भी बहुत से संवत्‌ प्रचलित थे। इन सब संवतों के प्रचार का आरंभ भिन्न-भिन्न काल में हुआ और उनके वर्षों का आरंभ भी विभिन्न ऋतुओं में होता था। इसके अतिरिक्त वर्ष, मास और दिनों की गणना का प्रकार भी भिन्न था। सामान्यत: वर्ष का मान ऋतुचक्र के तुल्य रखने का प्रयत्न किया जाता था, परंतु इस्लामी संवत्‌ हिज़री के अनुसार वह केवल बारह चांद्र मासों, अर्थात्‌ ३५४ दिनों का, वर्ष होता था, जो ऋतुचक्र के तुल्य नहीं है। कुछ वर्ष चांद्र और सौर के मिश्रण होते थे, जैसा आजकल भारत के अनेक प्रांतों में प्रचलित है। इसमें १२ चांद्र मासों (३५४ दिनों) का एक वर्ष होता है, परंतु दो या तीन वर्षों में एक अधिमास बढ़ाकर वर्ष के मध्य (औसत) मान को ऋतुचक्र के तुल्य बनाया जाता है। प्रत्येक ऋतु-चक्र-तुल्य वर्ष को सौर वर्ष भी कहते हैं, क्योंकि उसका मान सूर्य से संबद्ध होता है।

ऊपर हमने चांद्रमास का जो उल्लेख किया है उसको वस्तुत: सौर चांद्रमास कहना चाहिए, क्योंकि उसका आधार सूर्य और चंद्रमा के साथ मिश्र रूप में है। पूर्णिमा तक अथवा अमावस्या से अमावास्या तक इस चांद्रमास का मान होता है।

जैसे वर्षमान की कल्पना ऋतुओं पर और मास की कल्पना चंद्रमा की कलाओं पर आश्रित है, उसी प्रकार दिन की गणना की कल्पना सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्याह्न अथवा मध्यरात्रि से हुई। सामान्यत: एक मध्याह्न से आगामी मध्याह्न के माध्य (औसत) काल को एक दिन कहते हैं। जहाँ चांद्र मास प्रचलित है, जैसे भारत के विभिन्न प्रदेशों में, तिथियों से गणना की जाती है, जिनका संबंध प्रधानत: चंद्रमा की कलाओं के साथ है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जगत्‌ के विविध प्रदेशों में अलग-अलग संवतों से गणना होती है, वर्ष का प्रारंभ भी भिन्न-भिन्न ऋतुओं में होता है और मासगणना तथा दिनगणना भी विविध प्रकार की होती है। अब यदि किसी प्राचीन शिलालेख में हमने पढ़ा कि वह दिन अमुक संवत्‌ के अमुक मास का अमुक दिन था तो प्रश्न उठता है कि वह ठीक कौन सा दिन था। बहुधा इसका उत्तर पाना कठिन होता है, क्योंकि उस संवत्‌ का आरंभ कब हुआ, उसका वर्षमान क्या था और उसके मास तथा दिन किस प्रकार गिने जाते थे, इन सब बातों का ज्ञान प्राप्त किए बिना हम उस दिन का कालनिर्णय नहीं कर सकते।

इसलिए पहले यह आवश्यक है कि जगत्‌ के भिन्न-भिन्न संवतों का प्रारंभ, अर्थात्‌ उनके प्रथम वर्ष का आरंभ किसी एक ही प्रमाणित किए हुए संवतों में बताया जाए। जगत्‌ में प्राचीन काल से आज तक बहुत से संवत्सर चलते आए हैं। उन सबका निर्देश एक विस्तृत लेख का विषय है। अत: परिशिष्ट में भारत के प्राचीन एवं अर्वाचीन कुछेक मुख्य संवतों के प्रारंभ का काल ही देंगे।

आजकल अधिकांश घटनाओं का काल ईसवी सन्‌ में देने की प्रणाली है। ईसवी सन्‌ के पूर्व की घटनाओं का निर्देश करने के लिए हम "ई.पू.' (ईसा पूर्व) अक्षरों का व्यवहार करते हैं। इतिहासवेत्ताओं की परिपाटी है कि १ ई. सन्‌ के पूर्व के वर्ष को १ ई.पू. वर्ष कहते हैं। उसके पूर्व के वर्ष को २ ई.पू. कहते हैं—इत्यादि। किंतु गणितशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार यह परिपाटी अवैज्ञानिक है; क्योंकि इससे, उदाहरण के रूप में, ३ ई.पू. से २ ई. सन्‌ तक के बीच में ५ वर्ष व्ययतीत हुए, ऐसा भ्रम होता है, जबकि वस्तुत: यह अंतराल ४ वर्ष का ही है। इसीलिए गणितज्ञ और ज्योतिषी लोग इस कालगणना के स्थान में अन्य प्रकार की गणना का उपयोग करते हैं। वह इस प्रकार है कि वे लोग १ ई. सन. के पूर्व के वर्ष को ० (शून्य) वर्ष कहते हैं और इसके पूर्व के वर्ष को १ ई.पू. कहते हैं। इस प्रणाली से किसी भी ई.पू. वर्ष और किसी भी ई. वर्ष के बीच में व्यतीत हुए वर्षों की संख्या त्रुटिरहित होगी। संज्ञा प्रणाली में ई. सन्‌ (शून्य) के पश्चात्‌ के वर्षों के आगे अ (धन) संज्ञा लगाते हैं और ई. सन्‌ के पूर्व के वर्षों के आगे – (ऋण चिह्न लगाते हैं।)

विभिन्न संवतों के वर्षों के भीतर के मास और दिन की गणनापद्धति के लिए देखें "पंचाग और पंचांगपद्धति' शीर्षक लेख। यहाँ हम केवल वर्षगणना तक का वर्णन करेंगे।

सामान्य मान्यता यह है कि ईसवी सन्‌ ईसा मसीह के जन्म से गिना जाता है, परंतु कतिपय विद्वानों के मतानुसार उसमें लगभग ४ वर्ष की भूल है।

ई. सन्‌ की गणना में एक महत्वपूर्ण प्रसंग है जिसपर ध्यान न देने से कालगणना में १३ दिन तक की भूल होने की संभावना है। आजकल समान्यत: ई. सन्‌ वर्ष में ३६५ दिन होते हैं और प्रति चार वर्षों में एक वर्ष ३६६ दिन का होता है। शताब्दियों के वर्षों में ४ शताब्दियों में केवल एक शताब्दी में ३६६ दिन होते हैं। शताब्दियों के दिनों की यह विशिष्ट व्यवस्था प्राचीन काल में नही थी। १५८२ ई. तक शताब्दी सहित सब वर्षों में प्रति चार वर्ष में एक वर्ष ३६६ दिन का गिना जाता था।

३६५ दिन के वर्ष को सामान्य वर्ष तथा ३६६ दिन के वर्ष को अधिवर्ष (Leap Year) कहते हैं।

१५८२ ई. सन्‌ पोप ग्रेगरी ने ई. सन्‌ में दो सुधार किए। प्रथम सुधार यह था कि शताब्दियों के दिनों की व्यवस्था नवीन रूप से की गई, जो आजकल प्रचलित है। व्यवस्था यह हुई कि जिस शताब्दी को ४०० से नि:शेष विभाजित किया जा सके वही अधिवर्ष है; अन्य सब शताब्दियाँ सामान्य वर्ष हैं। यह नियम ज्योतिष के आधुनिक यंत्रों से पाने गए सूक्ष्म सायन (ट्रोपिकल) वर्षमान के अनुसार किया गया है। इस नियम की उपेक्षा से ईसवी सन्‌ के आरंभ से १५८२ ई. सन्‌ तक १० दिन बढ़ाए गए। इस नयी व्यवस्था को नवीन पद्धति और पूर्व की पद्धति को प्राचीन पद्धति कहते हैं। कालक्रमविज्ञान में सन्‌ १५८२ ई. के ४ अक्टूबर तक की घटनाओं को प्राचीन पद्धति से व्यक्त किया जाता है और उसके पश्चात्‌ की घटनाओं को नवीन पद्धति से।

(जूलियन दिनांक संपादित करें)
नई शैली, पुरानी शैली, छूटे हुए दिन, अधिवर्ष आदि की झंझटों से बचने के लिए ज्योतिषी (और कभी-कभी इतिहासज्ञ भी) बहुधा जूलियन दिनांक से समय सूचित करते हैं। इस पद्धति का आंरभ ्फ्ऱेंच ज्योतिषी स्केलियर ने किया था। इस पद्धति में १ जनवरी सन्‌ ४७१३ ई.पू. से आरंभ करके दिन लगातार गिने जाते हैं और दिन का आरंभ स्थानीय मध्याह्न से होता है। उदाहरणत: जूलियन दिनांक २४,३७,८९२.१२३ का अर्थ है १५ अगस्त १९६२ के मध्याह्न से ०.१२३व्२४ घेंटे बाद। नाविक पंचांगों में प्रत्येक दिन का जूलियन दिनांक दिया रहता है।

परिशिष्ट में विविध संवतों का प्रारंभ ई. सन्‌ में बताया गया है। उसकी सहायता से उस संवत्‌ में दिए हुए काल को हम ई. सन्‌ में समान्यत: व्यक्त कर सकते हैं। समान्यत: इसलिए कहा गया है कि उस सवंत्‌ का वर्षमान, मासगणना और दिनगणना का गणित जहाँ तक हम नहीं जानते वहाँ तक ई. सन. के ठीक दिनांक का निर्णय हम नहीं कर सकते।

परिशिष्ट में केवल एक ही संवत्‌ ऐसा है जिसका वर्षमान ई. सन्‌ के वर्षमान से बहुत भिन्न है : वह हिजरी सन्‌ है, जिसके वर्ष का माध्य मान ३५४.३७ दिन है। कुछ अन्य संवत्‌ और चांद्र मान के हैं, किंतु दो तीन वर्ष में अधिकमास बढ़ाकर वे प्राय: ई. सन्‌ के तुल्य हो जाते हैं। फिर भी थोड़े दिनों का अंतर रह जाता है। इन संवतों का वर्षारंभ ई. सन्‌ के कौन से मास में होता है, इसे भी परिशिष्ट में बताया गया है। इससे सामान्यत:, लगभग एक मास के भीतर, ई. सन्‌ का मास भी ज्ञात हो जाएगा।

उदाहरणत:, उत्तर प्रदेश के विक्रम संवत्‌ १९३२ के श्रावण मास में ई. सन्‌ का कौन सा वर्ष और मास आएगा, यह हम परिशिष्ट से ज्ञात कर सकते हैं। परिशिष्ट में यह बताया गया है कि इस संवत्‌ का वर्षारंभ ई. सन्‌ के -५७ वर्ष के अप्रैल मास में हुआ था। इस हिसाब से इस विक्रम संवत्‌ के १९३२ वर्ष का प्रारंभ अर्थात्‌ चैत्र मास अ१८५७ में अगस्त में हुआ होगा। इससे अधिक इस परिशिष्ट से हम नहीं जान सकते। ई. सन्‌ का मास और दिनांक भी निश्चित रूप से जानने के लिए हमें विक्रम संवत्‌ के मास और दिन की गणित पद्धति से भी परिचित होना चाहिए, जिसे "पचांग और पंचागपद्धति' शीर्षक लेख में बताया गया है।

【 परीशिष्ट 】
क्रमांक संवत्‌ संवत्‌ का प्रारंभ ई. सन्‌ में। वर्षमान वर्षारंभ प्रचार का प्रदेश या वर्ग

१ जूलियन - ४७१२ जनवरी। सौर १जनवरी ज्योतिषी

२ कलियुग - ३१०१ फरवरी। चांद्र-सौर (अमांत) चैत्र शुक्ल हिंदू

३ सप्तर्षि - ३०७५ अप्रैल। चांद्र-सौर (अमांत) चैत्र शुक्ल कश्मीर

४ विक्रम (अमांत) - ५७ नवंबर। चांद्र-सौर (अमांत) कार्तिक शुक्ल गुजरात

५ विक्रम (पौणिमांत) - ५७ अप्रैल। चांद्र-सौर (पौर्णिमांत) चैत्र कृष्ण उत्तर भारत

६ शक (शालिवाहन) अ ७८ अप्रैल चांद्र-सौर (अमांत) चैत्र शुक्ल दक्षिण भारत

७ वलभी अ ३१८ नवम्बर चांद्र-सौर (अमांत) कार्तिक शुक्ल सौराष्ट्र ई सन्‌ ४०० से १३०० तक

८ विलायती अ ५९२ सितंबर सौर १ कन्या उड़ीसा

९ अमली अ ५९२ अक्टूबर चांद्र-सौर भाद्रपद शुक्ल १२ उड़ीसा

१० बंगाली अ ५९३ अप्रैल सौर १ वैशाख बंगाल

११ हिजरी अ ६२२ जुलाई चांद्र १ मुहर्रम मुसलमान

१२ कोलम (उत्तर) अ ८२५ सितंबर सौर १ कन्या उत्तर मलाबार

१३ कोलम (दक्षिण) अ ८२५ सितंबर सौर १ सिंह दक्षिण मलाबार

। इस स्तंभ के प्रथम पाँच अंक गणितीय पद्धति के हैं। ऐतिहासिक पद्धति से ये अंक अनुक्रम से ४७१३ ई.पू., ३१०२ ई.पू., ३०७६ ई.पू., ५८ ई.पू. और ५८ ई.पू. हैं।


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